नई दिल्ली : पहले गोलियों की बौछार, फिर धमाके पर धमाके। कुछ ही देर में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अग्रिम पंक्ति के ज्यादातर बड़े नेता हमेशा के लिए इस दुनिया से चले गए। चुनाव लोकसभा का हो या फिर विधानसभा का, आज 10 बरस बाद भी उन धमाकों की गूंज सुनाई देती है।
बस्तर की झीरम घाटी। 25 मई 2013 का मनहूस दिन। पहले गोलियों की बौछार, फिर धमाके पर धमाके। कुछ ही देर में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अग्रिम पंक्ति के ज्यादातर बड़े नेता हमेशा के लिए इस दुनिया से चले गए। चुनाव लोकसभा का हो या फिर विधानसभा का, आज 10 बरस बाद भी उन धमाकों की गूंज सुनाई देती है। इस बार भी सुनाई दे रही है। पिछले कुछ वर्षों में नक्सलियों का असर कम जरूर पड़ा है, चुनावों को प्रभावित करने की उनकी ताकत क्षीण हुई है, लेकिन कांग्रेस और भाजपा दोनों नक्सलियों को ध्यान में रखते हुए ही अपनी रणनीति बना रहे हैं।
कांग्रेस की ओर से चुनावी मैदान में उतरे कवासी लखमा और भाजपा के महेश कश्यप में से किसी के लिए भी मुकाबला आसान नहीं दिख रहा है। बस्तर परंपरागत रूप से कांग्रेस की सीट रही है। 1996 तक कांग्रेस यहां से लगातार विजय हासिल करती रही। बाद में भाजपा ने भी यहां जीत का स्वाद चखा, लेकिन 2019 के चुनाव में कांग्रेस के दीपक बैज ने बाजी पलट दी। इस बार कांग्रेस ने प्रत्याशी भले ही बदल दिया हो, लेकिन वर्तमान सांसद की इलाके में ठीक-ठाक पहचान है।
दीपक बैज सहज उपलब्ध जन प्रतिनिधि रहे हैं। आधी रात को भी उनके घर का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। यह उनकी बड़ी ताकत है। इसके बावजूद कांग्रेस ने कवासी लखमा पर दांव लगाया है, तो उसकी अपनी वजह है। लखमा छह बार के विधायक हैं और आदिवासी बहुल इस क्षेत्र में उस गोंड समुदाय से आते हैं, जिसका गहरा प्रभाव है।
छत्तीसगढ़ के लालू यादव
लखमा की इलाके में एक पहचान छत्तीसगढ़ के लालू यादव की भी है। लालू की ही तरह सहज हास्य बोध और गरीब-गुरबों से सीधे संवाद की जो शैली लालू बिहार में अपनाते हैं, करीब-करीब वही शैली अपनाने के लिए छत्तीसगढ़ में लखमा मशहूर हैं। सभाओं में वह कब, क्या कह देंगे उन्हें भी नहीं पता होता। गोंड ही नहीं, भतरा और हल्बा से लेकर दूसरी तमाम जनजातियों में उनकी लोकप्रियता की एक बड़ी वजह यह भी है।
कांग्रेस में असंतोष
कांग्रेस की एक बड़ी चुनौती पार्टी के भीतर के असंतोष से निपटने की भी है। प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज इसी क्षेत्र से सांसद हैं। संगठन के लोग बताते हैं कि उन्होंने फिर लोकसभा के टिकट की आस लगाई थी, लेकिन पार्टी ने लखमा को बेहतर माना। इस वजह से दीपक के लोग इलाके में उस तरह से सक्रिय नहीं हैं। इसका खामियाजा भी लखमा को भुगतना पड़ सकता है। इसके अलावा बस्तर लोकसभा क्षेत्र में आने वाली कई विधानसभा सीट ऐसी हैं, जिन्हें भाजपा ने इस बार कांग्रेस से छीन लिया है। यह भी लोगों में कांग्रेस के प्रति नाराजगी का ही सूचक है। सियासी जानकार नहीं मानते कि विधानसभा चुनाव के बाद से ऐसा कुछ हुआ है, जिससे लोगों की कांग्रेस से नाराजगी कम हुई हो।
नक्सलियों के बहिष्कार का असर नहीं
कभी नक्सलियों के चुनाव बहिष्कार का बस्तर में व्यापक असर होता था, पर अब स्थिति बदल गई है। सुकमा, बीजापुर व अबूझमाड़ जैसे कुछ ही क्षेत्र ऐसे हैं, जहां छोटे हिस्से में नक्सलियों की चुनाव बहिष्कार की अपील असर करती है। बाकी हिस्सा अछूता रहता है। यहां तक कि नारायणपुर व दंतेवाड़ा, जो कभी नक्सलियों के गढ़ कहलाते थे, में भी लोग बेखौफ मतदान के लिए निकलते हैं। हालांकि, इसकी एक बड़ी वजह अर्धसैनिक बलों के करीब डेढ़ लाख जवानों की उपस्थिति भी है।