नई दिल्ली:– प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ एक अच्छा मौका आया है। यह मौका है उस शांति सम्मेलन में मध्यस्थता करने का, जिसे पश्चिम में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का सबसे महत्वपूर्ण शांति सम्मेलन बताया जा रहा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लगातार तीसरा कार्यकाल हासिल करने वाले नरेंद्र मोदी आज सबसे वरिष्ठ और लंबे समय से सत्तारूढ़ वैश्विक नेताओं में शामिल हैं। खास बात यह भी है कि ग्लोबल साउथ का अग्रणी स्वर माना जाने वाला भारत पहले से ही रूस और यूक्रेन के बीच शांति स्थापित करने का जोरदार पक्षधर रहा है।
ग्लोबल साउथ का हितरक्षक
शांति सम्मेलन में शिरकत करना भारत को ग्लोबल साउथ के प्रमुख हितरक्षक की भूमिका में सामने लाएगा, खासकर सप्लाई चेन में आ रही बाधाओं को दूर करने और ऊर्जा संकट व खाद्य असुरक्षा को संबोधित करने के लिहाज से। इसलिए, भारत को यूक्रेन में शांति और क्षेत्र में स्थायी स्थिरता लाने लाने वाले तीन स्तंभों के रूप में लोकतंत्र, कूटनीति और संवाद की अहमियत पर जोर देना चाहिए।
सम्मेलन की टाइमिंग
यह शांति सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा है जब नए जनादेश की चमक तो मोदी के साथ जुड़ी ही हुई है, भारत के G20 नेतृत्व की सफलता की आभा भी बरकरार है। रूस की सीधी निंदा न करने के कारण जो यूरोपीय देश शुरू में भारत के रुख की आलोचना कर रहे थे, वे भी आलोचना का स्वर धीमा करते हुए उसे लुभाने में लगे हैं। जाहिर है, यह सम्मेलन भारत और पीएम मोदी को शांति के अपने संदेशों के जरिए वैश्विक मध्यस्थ के रूप में नई दिल्ली की साख मजबूत करने का एक बेशकीमती अवसर दे रहा है।
ग्लोबल साउथ का संकट
रूस-यूक्रेन युद्ध ने कई महत्वपूर्ण डिवेलपमेंट फंड को ग्लोबल साउथ की पहुंच से दूर कर दिया है, जिससे इन देशों पर यु्द्ध का आर्थिक दुष्प्रभाव और बढ़ गया है। जाहिर है, अपने गुटनिरपेक्ष रुख और दोनों देशों के साथ संबंधों के कारण, भारत शांति वार्ता में असरदार भूमिका निभाते हुए ग्लोबल साउथ के लीडर के तौर पर उभर सकता है।
G20 अध्यक्षता का असर
विकासशील देश कहते रहे हैं कि अमीर देशों को उनकी अर्थव्यवस्थाओं की मदद के प्रयास बढ़ाने चाहिए। कोरोना महामारी में ये अर्थव्यवस्थाएं बुरी तरह प्रभावित हुईं थीं। युद्ध ने चुनौतियों को और बढ़ा दिया है। इसी का उदाहरण है ग्लोबल साउथ को मिलने वाली आधिकारिक विकास सहायता में कमी और इन अर्थव्यवस्थाओं पर कर्ज के बोझ में बढ़ोतरी। 2023 में भारत की सफल G-20 अध्यक्षता, जिसने रूस-यूक्रेन युद्ध पर संयुक्त घोषणा संभव बनाई और अफ्रीकी संघ का G-20 में शामिल होना सुनिश्चित किया, उभरती वैश्विक व्यवस्था को आकार देने में भारत के बढ़ते प्रभाव का स्पष्ट संकेत है।
यूरोप की दिलचस्पी
भारत की संभावित प्रभावी भूमिका में यूरोप की भी दिलचस्पी है। ध्यान रहे, इस बात का अहसास हाल के दिनों में बढ़ा है कि यूरोपीय देश विकासशील देशों का भरोसा जीतने के लिए खास कुछ नहीं कर सके हैं। ऐसे में जब पश्चिम और ग्लोबल साउथ दोनों भारत के नेतृत्व और प्रभाव को स्वीकार करते हैं, उसके पास एक ऐसा रास्ता निकालने का अनुकूल अवसर है जो अतीत के बोझ से मुक्त हो। भारत के नेतृत्व में रूस और यूक्रेन के बीच शांति स्थापित हो जाए तो ग्लोबल साउथ के देशों के लिए आर्थिक सुरक्षा बढ़ेगी और इसके नेता के तौर पर भारत की स्थिति मजबूत होगी।
खाद्य संकट की तलवार
थोड़ी देर के लिए कल्पना करें कि युद्ध के कारण अगर सचमुच रूस और यूक्रेन से गेहूं का निर्यात पूरी तरह बंद हो जाए, तो ग्लोबल साउथ के देशों को होने वाली इसकी सालाना सप्लाई में भारी कमी आएगी। दक्षिण एशिया में 19%, सब-सहारा अफ्रीका में 57%, दक्षिण पूर्व एशिया में 26%, मध्य एशिया, पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका में 39% तक की कमी हो जाएगी। इससे गंभीर खाद्य संकट पैदा होगा। दुनिया के प्रमुख एनर्जी सप्लायर देश रूस पर प्रतिबंधों के कारण वैसे भी कीमतों में तेज बढ़ोतरी के झटके लगे हैं। यूरोपीय देशों की सरकारें भले अपने नागरिकों को इन झटकों से बचा ले जाएं, ग्लोबल साउथ की अर्थव्यवस्थाओं के लिए यह मुश्किल है।
मौका भी है, दस्तूर भी
पूर्व और पश्चिम दोनों का दोस्त होने के नाते भारत की विशिष्ट स्थिति और जलवायु वार्ताओं में ग्लोबल साउथ के नेता के तौर पर उभरने की उसकी आकांक्षा रूस-यूक्रेन शांति के संभावित फॉर्म्युले को संभव बना सकती है। यह सम्मेलन भारत के लिए यूरेशिया में स्थायी शांति की ओर एक ठोस कदम बढ़ाने और यूरोप के साथ सुरक्षा संबंधों को फिर से संतुलित करने का एक सुनहरा अवसर है।
रूस से खरी-खरी
ध्यान रहे, भारतीय प्रधानमंत्री राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि ‘यह युद्ध का दौर’ नहीं है। इस संदर्भ में देखें तो एक भरोसेमंद साझेदार के रूप में रूस को खरी-खरी सुनाने की भारत की क्षमता उसे मौजूदा माहौल में महत्वपूर्ण स्वर बना देती है। भारत 2022 के आखिर में रूस द्वारा परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की आशंका का आकलन करने और उसे रोकने के अमेरिकी प्रयासों में भी भागीदारी कर चुका है।
भारत का हित
यूरोप में जल्द से जल्द शांति बहाल होना भारत के भी रणनीतिक हित में है। इस युद्ध ने भारत को रूस और पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंधों में संतुलन बनाए रखने के रस्सी पर चलने जैसे मुश्किल हालात में डाल रखा है। भारतीय प्रधानमंत्री की अगुआई में चली शांति वार्ता न केवल एक ग्लोबल लीडर के तौर पर उनकी व्यक्तिगत साख को मजबूत करेगी, बल्कि भारत की सफल मध्यस्थता के दीर्घकालिक फायदे भी होंगे। वैश्विक अंतरराष्ट्रीय पटल पर उभरती ताकत के तौर पर नई दिल्ली के लिए ऐसी नेतृत्वकारी भूमिका वक्त की मांग है।