नई दिल्ली:– कबीर दास जी को हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदाय के लोग बहुत पसंद करते हैं। उन्हें हिंदू मुस्लिम एकता की मिसाल पेश की हैं। संत कबीर दास जी का जन्म सन 1398 ईसवी में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन काशी में हुआ था। उनके पिता के नाम नीरू और माता का नाम नीमा था। आज उनकी जयंती है। लेकिन, क्या आप जानते हैं संत कबीर दास जी ने अपनी मृत्यु के लिए काशी को नहीं चुना था। बल्कि मगहर को चुना था। आइए जानते हैं इसके पीछा की रोचक कहानी क्या है।
संत कबीर दास जी ने अपनी मृत्यु के लिए मगहर को चुना जो की लखनऊ से लगभग 240 किमी दूर स्थित है। ऐसा उन्होंने लोगों के मन से भ्रम निकालने के लिए किया। दरअसल, उन दिनों ऐसी माना जाता था कि जो व्यक्ति मगहर में मरता है। उसे स्वर्ग में जगह नहीं मिलती है। लोगों का यही अंधविश्वास तोड़ने के लिए संत कबीर दास जी की मृत्यु मगहर में हुई थी।
उनके निधन के बाद कबीर दास जी हिंदू और मुस्लिम अनुयायी उनके शरीर के अंतिम संस्कार के लड़ने लगे। लेकिन, जैसे ही उन्होंने शव से चादर निकाली तो वहां उन्हें केवल फूल ही मिले। जिसके बाद दोनों समुदाय के लोगों ने वहां से फूल ले लिए और अपने-अपने रीति रिवाजों के अनुसार, ही उनका अंतिम संस्कार किया। ऐसा भी कहा जाता है कि जब दोनों समुदाय के लोग कबीर दास जी के अंतिम संस्कार के लिए लड़ रहे थे तो संत कबीर दास जी की आत्म उनके पास आई और उन लोगों से कहा कि न तो “मैं न तो हिंदू और न ही मुसलमान। मैं दोनों था, मैं कुछ भी नहीं था, मैं ही सब कुछ था, मैं दोनों में ईश्वर को पहचानता हूं। न कोई हिंदू है और न कोई मुसलमान। जो मोह से मुक्त है उसके लिए हिंदू और मुसलमान एक ही हैं। कफन हटाओ और चमत्कार देखो!” कबीर दास जी का एक मंदिर भी है और उनकी मस्जिद भी है।