नई दिल्ली:– शास्त्रीय संगीत के साधक, उपासक और आराधक पद्म भूषण पंडित छन्नूलाल मिश्र 87 वर्ष के हो चुके हैं। शास्त्रीय संगीत शब्द सुनते ही उनमें फिर बच्चों जैसी चंचलता, निश्छलता और कोमलता उछलकूद करने लगती है। उनसे बात करना गुरु से हमेशा कुछ नया पाने जैसा होता है। उनसे बात की सलिल पाण्डेय ने। पेश हैं बातचीत के अहम अंश :
गर्मी को निष्प्रभावी तो पानी से किया जा सकता है। इसलिए कजली गीत गाए जाते थे। साधना उत्तम हो तो ‘बरसन लागी बदरिया हो रामा’ कजली गीत गाते बादलों में हलचल मचने लगती है। ग्रीष्म ऋतु की तपिश से छुटकारे के लिए वर्षा ऋतु में कजली गीत गाते ही आकाश में सूरज की सत्ता बेदखल होने लगती है और बादलों का साम्राज्य छाने लगता है। वर्षा ऋतु के गीत कजली को वार्षी छंद कहा जाता है। कजली गीत योगेश्वर श्रीकृष्ण की बहन योगमाया के कंस के हाथों से छूटकर धरती पर आने के मौके पर गाए जाने से भी संबंधित है। विंध्य पर्वत पर योगमाया का अवतरण हुआ। इसको इस रूप में भी देखा जा सकता है कि जब मातृ-शक्ति आसपास होती है तो शीतलता और सुकून का अहसास ज्यादा होता है।
पीएम मोदी के आने के बाद अब बनारस को कैसे देखते हैं, कैसा पाते हैं?
उनके आते ही बनारस सच में बन गया और रसदार हो गया। रूप-रंग संवर गया। संकरापन खत्म हुआ। काशी विशाल और विराट हुई। सड़कें खूबसूरत और चौड़ी हुईं। रफ्तार तेज हुई।
मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना: इसे ‘जाकी रही भावना जैसी, हरि मूरत देखी तिन जैसी’ भी कह सकते हैं। यह बाबा विश्वनाथ की तीन लोकों से न्यारी काशी है। महादेव जबान की नहीं, मन की आवाज सुनते हैं।
संगीत में भगवान बसते हैं। खुद लीलाधारी भगवान विष्णु कहते हैं, ‘नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च, मद्भक्ता यत्र गायंति तत्र तिष्ठामि नारद!’ इसका अर्थ है, ‘हे देवर्षि ! मैं न तो वैकुंठ में निवास करता हूं और न ही योगी-जनों के ह्रदय में निवास करता हूं। मैं तो उन भक्तों के पास रहता हूं जहां भक्तगण मेरे नामों का गायन करते हैं। यहां भगवान ने ‘भजंति’ और ‘ध्यायंति’ का उल्लेख नहीं किया बल्कि ‘गायंति’ का जिक्र किया है। तो मैं कह सकता हूं कि जितनी मैंने साधना की, उससे कहीं अधिक इतना हाथ लगा है कि बांटते और लुटाते भी खत्म नहीं हो रहा है। संगीत किसी को दुखी नहीं करता तो मुझे ही क्यों दुखी करेगा?
आपका जगप्रसिद्ध होली गीत है- ‘खेलें मसाने में होली दिगंबर।’ पिछले दिनों कुछ लोग वाकई मणिकर्णिका के मसान में होली खेलने पहुंच गए थे। इसे कैसे देखते हैं?
बड़ी आध्यात्मिक महत्ता की बात है। मसान में होली केवल काल के देवता महाकाल स्वरूप महादेव ही खेल सकते हैं। मृत्यु प्रलय है। प्रलय के द्रष्टा महादेव हैं। ‘नाचत गावत डमरू बजावत’ की क्षमता किसी और देवता में नहीं है तो सामान्य इंसान की बात ही क्या है? यशोदा के लल्ला कन्हैया होली में गोपिकाओं संग होली खेलते हैं, परंतु महादेव ‘मृत्यु की राह में स्थित मणिकर्णिका’ में निरंतर होली खेलते हैं। मृत्यु शाश्वत सत्य है। इसलिए अपने भूत-प्रेतों तक को अनियंत्रित होने से रोकने के लिए महादेव ‘मसान-पीठ’ पर जा विराजे। जहां तक मणिकर्णिका पर जाकर होली खेलने की बात है तो मसान में सामान्य लोगों को गाना या नृत्य नहीं करना चाहिए। महादेव के नृत्य का स्वरूप भी अलग-अलग है। जब मां पार्वती को नृत्य का अवसर महादेव देते हैं तो वह ‘लास्य नृत्य’ कहलाता है। यही लास्य नृत्य नारी के कोमल भाव का रूप है, जबकि महादेव के तांडव नृत्य को ‘नृत’ कहा जाता है। यह पुरुष सूचक नृत्य है। शिव तांडव के श्लोकों में नारी जैसा लास्य तथा पुरुष जैसा नृत दोनों समाहित है। जन्म-मृत्यु दो स्थितियों से हर कोई गुजरता है। जन्म के समय ‘सोहर गीत’ गाया जाता है जबकि मृत्यु पर निर्गुण। इसलिए श्मशान पर सिर्फ निर्गुण ही गाया जाना चाहिए।
आजकल सिखाने वाले सब कुछ सिखाने से बचते हैं। लोग भी कहते हैं कि सब कुछ मत सिखाना, कुछ खुद के लिए भी बचाकर रखना। क्या कुछ बच पाता है?
अखिल ब्रह्मांड की अनंतता और समुद्र के जल जैसा गहरा संगीत का भी सागर है। ‘दोऊ हाथ उलीचिए’ भाव संगीत के गुरु को भी रखना चाहिए। वही सच्चा गुरु है जो शिष्य की गुरुता (वजन) बढ़ा दे।
आपने आजादी के बाद संगीत का पूरा वक्त देखा है। इतने लंबे समय में क्या बदला, क्या छूटा, क्या बना रह गया?
शास्त्रीय विधि से गाए जाने वाला गीत जन-मन-रंजन का माहौल बनाता है। सिर्फ राग अलापने को शास्त्रीय संगीत नहीं कह सकते। इधर राग अलापने की प्रवृत्ति बढ़ी है। शास्त्रीय संगीत की बारीकियों का सम्यक ज्ञान आवश्यक है। फिल्मों के गीतों ने शास्त्रीय संगीत के उत्थान में उल्लेखनीय भूमिका अदा नहीं की है। कभी-कभी कुछ गीत प्रभाव छोड़ते हैं। ‘मधुवन में राधिका नाचे रे’ गीत लोकप्रिय हुआ है। शास्त्रीय संगीत के लिए प्रारंभिक स्तर पर 6 राग और 30 रागिनियों को समझने की जरूरत होती है।
संगीत के क्षेत्र में बनारस घराने की स्थिति और योगदान पर क्या कहेंगे?
घरानों में सिरमौर है बनारस घराना। इसके गुरु तुंबरु ऋषि थे। इन्होंने नारद को संगीत में दीक्षित-प्रशिक्षित किया था। ‘केशव कहि न जाई का कहियो’ पद से इसकी विशेषता समझी जा सकती है। अशरीरी ब्रह्म के मुख से यह भाव प्रकट हुआ। इसका अर्थ यही है कि वायु तरंगों में बनारस घराने की महिमा गूंजती रहती है।