नई दिल्ली:- भारत जैव विवधता का बेहतरीन उदाहरण है. परंपरागत फसलों के अलावा यहां कई दुर्लभ पेड़-पौधे की खेती भी होती है. इनमें से एक है अगरवुड की खेती. इसका वैज्ञानिक नाम एक्विलारिया मैलाकेंसिस है. इसकी लकड़ी का बाजार मूल्य 2-3 लाख रुपए प्रति किलो है. इससे तैयार सेंट सोने से भी ज्यादा मूल्यवान है. सेंट के तैयार करने के लिए अगरवुड की लकड़ी को सड़ाया जाता है.
इसके अलावा इससे बेहतरीन क्वलिटी की अगरबत्ती, एयर फ्रेशनर, प्यूरीफायर, दवाइयां आदि तैयार किया जाता है. भारत में संगठित रूप से पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर, असम, नागालैंड और त्रिपुरा में इसकी खेती है. हाल के दिनों में कई तेलुगू प्रदेश में भी इसकी खेती होती है. इसके अलावा देश के अलग-अलग हिस्सों में भी इसकी खेती होती है. बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट के अनुसार अगरवुड से तैयार अगरबत्ती 2014 में पौने पांच लाख प्रतिकिलोग्राम की रेट में बिकती थी.
गारवुड की खेती और रोचक तथ्य: अगर किसी पौधे या पेड़ को कीट लग जाए तो वह बेकार है. हम विभिन्न रसायनों का छिड़काव करके उन्हें संरक्षित करते हैं. लेकिन इस दुनिया में यह पेड़ तभी मजबूत होता है जब इसे फफूंद दी जाए. इसलिए इसकी कीमत सोने से भी ज्यादा है.
किसानों के लिए लाभदायक पेड़: अगरवुड फफूंद के कारण सुगंधित लकड़ी, तेल और अन्य उत्पाद प्रदान करके किसानों के लिए एक लाभदायक पेड़ है. इन पेड़ों की विदेशों में काफी मांग है. इन पेड़ों की खेती अब हमारे आसपास भी होने लगी है. सोने जैसा एक पेड़ भी उसे उगाने वालों के लिए धन लाता है.
सुगंधित अगर बत्ती और इत्र अगर की लकड़ी से बनाए जाते हैं. यह सिंगापुर, लाओस, ताइवान, इंडोनेशिया, मलेशिया और थाईलैंड में उगाया जाता है. अरब देशों में लकड़ी और उससे जुड़े उत्पादों की खपत होती है. अगरवुड, जो असम, मिजोरम और त्रिपुरा राज्यों में प्रवेश कर चुका है, हाल ही में तेलुगू राज्यों में पहुंच गया है. अगरवुड श्रीगंधम और लाल चंदन जैसे सुगंधित लकड़ी के पेड़ों के समान है.
सिर्फ चार साल में आमदनी : श्रीगंधम और लाल चंदन के पेड़ों को आमदनी के लिए करीब तीस साल तक इंतजार करना पड़ता है. अगर आप उन्हीं अगरवुड के पेड़ों की खेती करते हैं तो आपको चार साल तक आमदनी होगी. एक बार पेड़ उगाने के बाद चालीस साल तक यह अगरवुड का पेड़ कई तरह से फायदा पहुंचाता है. ये पेड़ बहुत तेजी से बढ़ते हैं. रोपण के चार वर्ष बाद जब पेड़ मोटा हो जाता है तो तने में छेद करके फफूंद लगा दी जाती है.
जैसे-जैसे कवक पेड़ पर बढ़ता है, यह तने के अंदर एक राल जैसा पदार्थ छोड़ता है. जैसे ही यह तने के साथ जुड़ता है और कुछ रसायन छोड़ता है, अगरवुड की लकड़ी सुगंधित हो जाती है. तने के अंदर सुगंधित लकड़ी की परत काली और गहरे लाल रंग की होती है. तीखी गंध वाला हिस्सा किसानों को भारी मुनाफा दिलाता है.
अगर की लकड़ी की कीमत: अगर की लकड़ी में फंगस डालने के बाद छाल को हटाकर राल जैसी लकड़ी को इकट्ठा किया जाता है. इस प्रकार एकत्र किये गये अगर लकड़ी के टुकड़े किलो की दर से बेचे जाते हैं. यदि एक पेड़ से छह महीने में लगभग तीन किलो लकड़ी के चिप्स निकलते हैं, तो प्रति किलो कीमत एक लाख रुपये से तीन लाख रुपये तक होती है. इस अगर की लकड़ी का उपयोग अगरवुड और धूपबत्ती बनाने में किया जाता है. मोतियों से मालाएं और कंगन बनाये जाते हैं.
70 लाख लीटर है यह तेल: कुछ लोग लकड़ी के इन टुकड़ों को जमा करते हैं और तेल इकट्ठा करते हैं. मलहम और दवा बनाने में इस्तेमाल होने वाले इस तेल की अरब देशों में काफी मांग है. क्वालिटी के आधार पर एक लीटर तेल की कीमत 30 से 70 लाख रुपये तक होती है. फर्निचर निर्माता सुंदर फर्निचर बनाते हैं, भले ही वे ऐसा कुछ किए बिना उसे लकड़ी के रूप में बेचते हों.
अगरवुड की पत्तियां भी हैं उपयोगी: अगरवुड की लकड़ी के साथ-साथ पत्तियां भी उपयोगी होती हैं. इन्हें सुखाकर हरी चाय की पत्तियों की तरह सूखी पत्तियों और पाउडर में बदल दिया जाता है. इनसे बनी चाय सेहत को कई तरह से फायदा पहुंचाती है. अगर आप दिन में एक बार अगरवुड टी पीते हैं तो तनाव, पाचन और सांस संबंधी समस्याएं नियंत्रित रहेंगी और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ेगी. इसलिए तेलुगू राज्यों के किसान ये सभी उत्पाद बनाकर विदेशों में निर्यात कर रहे हैं. इसीलिए कहा जाता है कि अगरवुड न केवल सुगंधों की फसल है, बल्कि नसों की भी फसल है.