जलाईए ग्रीन पटाखा, पाईए धुंआ और धूल से छुटकारा। यह सफेद और पीली रोशनी देगा। जलाने के बाद फूटने पर धुंआ नहीं निकलेगा। धूल सोखने की क्षमता वाला यह ग्रीन पटाखा, होलसेल मार्केट में, रिटेल काउंटर की डिमांड की राह देख रहा है। कीमत भले ही, परंपरागत पटाखे की तुलना में, दोगुनी हो लेकिन खरीदी में इसका भी नाम लिखा जा रहा है।
मानक से ज्यादा ध्वनि और वायु प्रदूषण के लिए जिम्मेदार ठहराया जा चुका पटाखा, इस बरस सप्लाई लाइन में कई तरह की बाधा का सामना कर रहा है। पर्व की रोज बढ़ती डिमांड और सीमित आपूर्ति के बीच, कीमत अब दोगुनी हो चुकी है। संकट तब और ज्यादा गहराता नजर आता है जब ग्रीन पटाखे की उपलब्धता और कीमत की जानकारी दी जाती है। पटाखा कारोबारी ग्रीन पटाखे की कीमत को लेकर नाराज तो हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का पालन भी करना है। इसलिए चुप्पी साधे हुए हैं।
क्या है ग्रीन पटाखा
सामान्य पटाखा की तरह ग्रीन पटाखा के उत्पादन में बेरियम नाइट्रेट की जरूरत नहीं पड़ती। एलुमिनियम की मात्रा भी कम होती है। राख की भी आवश्यकता नहीं होती। इसके अलावा इस उपाय से बनने वाला ग्रीन पटाखा 35 फ़ीसदी कम प्रदूषण फैलाता है। सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि इसमें धूल सोखने की क्षमता भी होती है। दिलचस्प यह कि फूटने के वक्त यह पीला और सफेद रोशनी ही देता है और धुंआ नहीं छोड़ता।

काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिकों ने ग्रीन पटाखा का फार्मूला तैयार किया। वैसे तो किसी भी पटाखे को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त नहीं बनाया जा सकता लेकिन संस्थान ने जो फार्मूला तैयार किया है और इससे जो ग्रीन पटाखा बनाया है, उसकी मदद से वॉटर मॉलिक्यूल्स यानी पानी का कण तैयार किया जा सकता है। जिससे धूल और खतरनाक राख को कम करने में मदद मिलती है।
मिल रहे यह ग्रीन पटाखे
तमिलनाडु के शिवाकाशी से जो ग्रीन पटाखे बन कर आए हैं, उनमें फुलझड़ी, लाइट ,अनारदाना और फूटने वाले ऐसे पटाखे हैं, जिनकी मांग सदा से रहती आई है। परंपरागत पटाखे की तुलना में ग्रीन पटाखों की कीमत 70 से 80 फ़ीसदी ज्यादा है लेकिन प्रदूषण के स्तर के घटने से होने वाला लाभ, कहीं ज्यादा हितकारी है। इसलिए मांग निकलती नजर आती है।
परंपरागत पटाखे डबल
परंपरागत पटाखों में अनारदाना, चकरी, फुलझड़ियां, लाईट, लक्ष्मी बम और मांग में हमेशा रहने वाले सभी पटाखे, बीते साल की तुलना में दोगुनी कीमत पर मिल रहे हैं। तेजी की वजह यह है कि पटाखा यूनिटों में काम करने वाले कुशल कारीगरों की बेहद कमी है। कोरोना का संक्रमण भले ही कम हो रहा है लेकिन भय इतना ज्यादा है कि कारीगर काम पर लौट नहीं रहे हैं। इसलिए सीमित कारीगरों से ही ज्यादा मजदूरी देकर काम करवाया जा रहा है। इसके बाद भी यूनिटें मांग पूरी नहीं कर पा रहीं हैं।