नई दिल्ली: हमारे देश के पहाड़ी इलाकों में कई जगह फलों के बागान हैं। कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड में मार्च-अप्रैल के महीने में मौसम बदलने के साथ ही तरह-तरह के रसीले फल प्रकट होने लगते हैं। इनमें सबसे पहले नजर आता है आलूबुखारा, जिसे आलूचा भी कहते हैं। आलू पुर्तगालियों के साथ दक्षिण अमेरिका से यहां आया। इसलिये कुछ लोग यह अटकल लगाते हैं कि आलूबुखारे को यह नाम दिया गया। बुखारा का आलू, छोटे आकार वाले आलू बुखारे बहुत तेज खटास वाले होते हैं और उनका इस्तेमाल चटनी या अचार बनाने के लिये ही किया जाता है।
पंजाब में शाकाहारी आलूबुखारा कोफ्ता बनाया जाता रहा है जो आजकल कम देखने-चखने को मिलता है। बड़ी मेहनत से आलू बुखारे की गुठली निकाल उसके भीतर एक बादाम भरा जाता है, और फिर आलूबुखारे को आलू या लौकी अथवा पनीर के कोफ्ते में संभालकर रख दिया जाता है। यह व्यंजन बनाने में श्रम साध्य है और पहले भी इसे खास मेहमानों के सत्कार के लिये ही पकाया जाता था।
आलूबुखारे का अंग्रेजी नाम प्लम है जिसे हिंदुस्तानी उच्चारण में पुलम कहा जाता है। चीनी खाने में प्लम से बने सॉस का अपना स्थान है, खासकर मुर्गी या बतख को अनोखा जामा पहनाने के लिये, प्लम सॉस का इस्तेमाल किया जाता है। कोरियाई बार्बेक्यू में भी प्लम सॉस का जरा बदला हुआ रूप देखने को मिलता है। अंग्रेजी राज के दौर में दूसरे फलों की तरह प्लम से जैम और जेली बनाना आम था। मगर हम हिंदुस्तानियों को मीठे जैम ही ज्यादा रास आते हैं, अतः यह उत्पाद भारत में बहुत लोकप्रिय नहीं हुए।
आजकल बाजार में अमेरिका या फिलीपींस से आयात किये फ्रूट बाजार में सुलभ हैं। पोषण वैज्ञानिकों का मानना है कि यह सेहत के लिये बहुत फायदेमंद होते हैं। इनमें रेशे (फाइबर) और प्रोटीन तथा खनिज यथेष्ट मात्रा में होते हैं। प्रून भी आलू बुखारा परिवार का ही एक सदस्य है। हालांकि, इन फलों में मीठा रस कम और गूदा ज्यादा होता है। गुठली निकाल इनके छोटे-छोटे टुकड़े काटकर इन्हें सूखी खुमानियों की तरह ही विविध व्यंजनों में काम लाया जाने लगा है।