नई दिल्ली :सनातन धर्म में देवोत्थान एकादशी को साल की समस्त एकादशियों में काफी महत्वपूर्ण माना जाता है. इस दिन हिंदू समाज में शादी ब्याह का दौर आरंभ हो जाता है. देवोत्थान एकादशी को देवउठनी एकादशी भी कहा जाता है, क्योंकि मान्यता है कि इस दिन भगवान विष्णु क्षीर सागर में योग निद्रा के बाद जागते हैं और समाज में शुभ काम फिर से आरंभ हो जाते हैं. इस साल देवउठनी एकादशी 24 नवंबर को मनाई जा रही है. इस दिन तुलसी और शालिग्राम का विवाह कराने की परंपरा है. शालिग्राम भगवान विष्णु का विग्रह है और उसका तुलसी मां से विवाह कराया जाता है. इस विवाह के पीछे एक बहुत ही खास पौराणिक कथा सुनाई जाती है. चलिए जानते हैं कि भगवान विष्णु और तुलसी का विवाह किस तरह हुआ.
कथा के अनुसार प्राचीन काल में जालंधर नाम का राक्षस बहुत ही शक्तिशाली था. इंसान हो या देव, कोई उसे हरा नहीं पाता था क्योंकि उसकी पत्नी वृंदा बहुत ही पतिव्रता थीं और इसी प्रभाव से जालंधर अजेय हो रहा था. जब जालंधर की बढ़ती शक्ति से देव परेशान हो गए तो वो भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे. तब सबने मिलकर समाधान निकाला कि वृंदा के पतिव्रत को नष्ट करके ही जनता को जालंधर के प्रकोप से मुक्ति दिलाई जा सकती है. ऐसे में भगवान विष्णु जालंधर का रूप लेकर वृंदा के पास गए और उसे स्पर्श किया जिससे वृंदा का पतिव्रत टूट गया और जालंधर की शक्ति कमजोर हो गई. इसी बीच भगवान शिव ने जालंधर को युद्ध के लिए पुकारा और उसका वध कर दिया. भगवान विष्णु की भक्त वृंदा को जब पता चला कि छल से उनका पतिव्रत धर्म तोड़ने वाले उसके आराध्य भगवान विष्णु ही हैं और इसी छल से उसके पति का वध किया गया है उन्होंने क्रोध में भगवान विष्णु को पत्थर में बदल जाने का श्राप दे दिया.
इस श्राप से भगवान विष्णु पत्थर के विग्रह यानी शालिग्राम में बदल गए. तब मां लक्ष्मी ने वृंदा से आग्रह किया कि वो अपना श्राप वापस ले लें. मां लक्ष्मी की अपील पर वृंदा ने भगवान विष्णु को श्राप से तो मुक्त कर दिया लेकिन उन्होंने खुद का आत्मदाह कर लिया. जहां वृंदा ने खुद का आत्मदाह किया वहां पौधा उग आया जिसे भगवान विष्णु ने तुलसी का नाम दिया. भगवान विष्णु ने कहा कि मेरा रूप हमेशा इसी विग्रह यानी शालिग्राम में रहेगा और इसकी सदैव तुलसी के साथ पूजा की जाएगी. इसीलिए हर साल देवउठनी एकादशी पर शालिग्राम विग्रह और तुलसी का विवाह किया जाता है.